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लियो टॉलस्टॉय की रचनाएँ


9
विजय का परभाव सूर्य की भांति चमकने लगा। उसने भूसे के सिपाहियों से सचमुच के सिपाही बना दिए। राज्य भर में यह हुक्म जारी कर दिया कि दस घर पीछे एक मनुष्य सेना में भरती किया जाए और कवायदपरेड कराकर सेना को अस्त्रशस्त्र विद्या में ऐसा चतुर कर दिया, कि जब कोई शत्रु सामना करता, तो वह तुरंत उसका विध्वंस कर देता। सारे राजा उसके भय से कांपने लगे, वह अखंड राज करने लगा।
तारा बड़ा बुद्धिमान था। उसने धन संचय करने के निमित्त मनुष्यों, घोड़ों, गाड़ियों, जूतों, जुराबों, वस्त्रों तात्पर्य यह कि जहां तक हो सका, सब व्यावहारिक वस्तुओं पर कर बैठा दिया। धन रखने को लोहे की सलाखों वाले पक्के खजाने बना दिये और चौरीचकारी, लूटमार, धन सम्बन्धी झगड़े बन्द करने के निमित्त अनगिनत कानून जारी कर दिए। संसार में रुपया ही सबकुछ है। रुपये की भूख से सब लोग आकर उसकी सेवा करने लगे।
अब सुमंत मूर्ख की करतूत सुनिए। ससुर का क्रियाकर्म करके उसने राजसी रत्नजटित वस्त्रों को उतारकर, सन्दूक में बन्द कर अलग धर दिए। मोटेझोटे कपड़े पहन लिये और किसानों की भांति खेती का काम करने का विचार किया। बैठेबैठे उसका जी ऊबता था।
भोजन न पचता, बदन में चबीर ब़ने लगी, नींद और भूख दोनों जाती रही। उसने अपनी गूंगी बहन और मातापिता को अपने पास बुला लिया और ठीक पहले की भांति खेती का काम करना आरंभ कर दिया।
मंत्री-आप तो राजा हैं, आप यह क्या काम करते हैं!
सुमंत-तो क्या मैं भूखा मर जाऊं? मुझे तो काम के बिना भूख ही नहीं लगती। करुं तो क्या करुं?
दूसरा मंत्री-(सामने आकर) महाराज, राज्य का परबंध किस परकार किया जाए? नौकरों को तलब कहां से दें? रुपया तो एक नहीं।
सुमंत-यदि रुपया नहीं तो तलब मत दो।
मंत्री-तलब लिये बिना काम कौन करेगा?
सुमंत-काम कैसा, न करने दो। करने को खेतों में क्या काम थोड़ा है। खाद संभालना, समय पर खेती करना, यह सब काम ही हैं कि और कुछ?
इतने में एक मुकदमे वाले सामने आये।
किसान-महाराज, उसने मेरे रुपये चुरा लिये।
सुमंत-कोई बात नहीं, उसको रुपये की जरूरत होगी।
सब लोग जान गये कि सुमंत महामूर्ख है। एक दिन रानी बोली-'पराणनाथ, सब लोग यही कहते हैं कि आप मूर्ख हैं।
सुमंत-तो इसमें हानि ही क्या है?
रानी ने विचारा कि धर्मशास्त्र की यही आज्ञा है कि स्त्री का परमेश्वर पति है। जिसमें वह परसन्न रहे, वही काम करना धर्म है। अतएव वह भी राजा सुमंत के साथ खेती का काम करने लगी।
यह दशा देखकर बुद्धिमान पुरुष सबके-सब अन्य देशों में चले गये। केवल मूर्ख ही मूर्ख यहां रह गए। इस राज्य में रुपया परचलित न था। राजा से लेकर रंक तक खेती का काम करते, आप खाते और दूसरों को खिलाकर परसन्न होते।

10
इधर अधर्मराज बैठे देख रहे हैं कि तीनों भाइयों का सर्वनाश करके भूत अब आते हैं, अब आते हैं; परंतु वहां आता कौन? अधर्म को बड़ा आश्चर्य हुआ कि यह क्या बात है। अंत में सोचविचारकर स्वयं खोज लगाने के लिए चला।
सुमंत के पुराने गांव में जाने पर ूंढ़ने से तीन छेद मिले। अधर्म को मालूम हो गया कि तीनों भूत मारे गए। वह भाइयों की खोज में चला। जाकर देखा तो तीनों भाई राजा बने बैठे हैं। फिर क्या था, जलभुनकर राख ही तो हो गया। दांत पीसकर बोला-देखूं यह सब मेरे हाथ से बचकर कहां जाते हैं? वह एक सेनापति का वेश बदलकर पहले विजय के पास पहुंचा और हाथ जोड़कर विनय की-महाराज, मैंने सुना है कि आप महा शूरवीर हैं। मैं अस्त्रशस्त्र विद्या में अति निपुण हूं। इच्छा है कि आपकी सेवा करके अपना गुण परकट करुं।
विजय उसकी चितवनों से ताड़ गया कि आदमी चतुर और बुद्धिमान है, उसे झट सेनापति की पदवी पर नियुक्त कर दिया।
नवीन सेनापति सेना को ब़ाने का परबन्ध करने लगा। विजय से बोला-महाराज, मेरे ध्यान में राज्य में बहुत लोग ऐसे हैं जो कुछ नहीं करते। राज्य की स्थिरता सेना से ही होती है। इसलिए एक तो सब युवक पुरुषों को रंगरूट भरती करके सेना पहले से पांचगुनी कर देनी चाहिए, दूसरे नये नमूने की बन्दूकें और तोपें बनाने के वास्ते राजधानी में कारखाने खोलने चाहिए। मैं एक फायर में सौ गोली चलाने वाली बन्दूक और घोड़े, मकान, पुल इत्यादि नष्ट कर देने वाली तोपें बना सकता हूं।
विजय ने परसन्नापूर्वक झट सारी राजधानी में एक आज्ञापत्र जारी कर दिया कि सब लोग रंगरूट भरती किए जायं। नये नमूने की तोपें और बंदूकें बनाने के वास्ते जगहजगह कारखाने खोल दिए। युद्ध की समस्त सामगरी जमा होने पर पहले उसने पड़ोसी राजा को जीता, फिर मैसूर के राजा पर च़ाई का डांका बजा दिया।
पर सौभाग्य से मैसूर के राजा ने विजय का सारा वृत्तांत सुन रखा था। विजय ने तो पुरुषों को ही भरती किया था, उसने स्त्रियों को भी सेना में भरती कर लिया। नये से नये नमूने की बन्दूकें और तोपें बना डालीं, सेना विजय से चौगुनी कर दी और नवीन कल्पना यह की कि बम के ऐसे गोले बनाए जाएं जो आकाश से छोड़े जाएं और धरती पर फटकर शत्रु की सेना का नाश कर दें।
विजय ने समझा था कि पड़ोसी राजा की भांति छिन में मैसूर के राजा को जीतकर उसकी राज्य छीन लूंगा, परन्तु यहां रंगत ही कुछ और हुई। सेना अभी गोली की मार में भी नहीं पहुंची थी की शत्रु की सेना की स्त्रियों ने आकाश से बम के गोले बरसाने आरम्भ कर दिए विजय की सारी सेना काई की भांति फट गई। आधी वहीं काम आयी, आधी भयभीत होकर भाग गयी। विजय अकेला क्या कर सकता था? भागते ही बनी। मैसूर के राजा ने उसके राज्य पर अपना अधिकार कर लिया।
विजय का सर्वनाश करके अधर्म तारा के राज्य में पहुंचा और सौदागर का वेश धारण करके वहां एक कोठी खोल दी। जो पुरुष कोई माल बेचने आता, उसे चौगुनेपचगुने दाम पर ले लेता। शीघर ही वहां की परजा मालदार हो गई। तारा यह हाल देखकर बड़ा परसन्न हुआ और कहने लगा कि व्यापार बड़ी वस्तु है। इस सौदागर के आने से मेरा कोष धन से भर गया। किसी बात की कमी नहीं रही।
अब तारा ने एक महल बनाना शुरू किया। उसे विश्वास था कि रुपये के लालच से राज, मजदूर, मसाला सब कुछ सामगरी शीघर ही मिल जायेगी कोई कठिनाई न होगी। परन्तु राजा का महल बनाने के वास्ते कोई न आया। अधर्म सौदागर के पास रुपये की गिनती न थी। उसकी अपेक्षा राजा उससे अधिक मजूरी और दाम नहीं दे सकता। उसका महल न बन सका। तारा को साधारण मकान में ही रहना पड़ा।
इसके पीछे उसने एक बाग लगाना आरम्भ किया। उस सौदागर ने तालाब खुदवाना शुरू कर दिया। सब लोग रुपया अधिक होने के कारण सौदागर के वश में थे। राजा का काम कोई न करता था। बाग भी बीच में ही रह गया। शीतकाल आने पर तारा ने ऊनी वस्त्र आदि खरीदने का विचार किया। सारा संसार छान डाला। जहां पूछा, यही उत्तर मिला कि सौदागर ने कोई वस्त्र नहीं छोड़ा, सारे के सारे खरीदकर ले गया।
यहां तक कि रुपये के परभाव से अधर्म ने राजा के सब नौकर अपने पास खींच लिये। राजा भूखों मरने लगा। क्रुद्ध होकर उसने सौदागर को अपनी राजधानी से निकाल दिया। अधर्म ने सीमा पर जाकर डेरा जमाया। तारा को कुछ करतेधरते नहीं बनता था। उसे उपवास किए तीन दिन बीत चुके थे कि विजय आकर सम्मुख खड़ा हो गया।
विजय-भाई तारा, मैं तो मर चुका। मेरी सेना, राजपाट सब नष्ट हो गया। मैसूर के राजा ने मेरी राजधानी पर अपना अधिकार कर लिया, भागकर तुम्हारे पास आया हूं, मेरी कुछ सहायता कीजिए।
तारा-सहायता की एक ही कही। यहां आप अपनी जान पर आ बनी है। उपवास किए तीन दिन हो चुके हैं, खाने को अन्न तक तो मिलता नहीं, तुम्हारी सहायता किस परकार करुं?
(अनुवाद: प्रेमचंद)

  

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